समाजवादी >> 1084 वें की माँ 1084 वें की माँमहाश्वेता देवी
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महाश्वेता देवी की एक महान कृति...
1084 Ki Maa - A Hindi Novel by Mahasweta Devi - 1084वें की माँ - महाश्वेता देवी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आजादी से समानता, न्याय और समृद्धि के सपने जुड़े थे। लेकिन सातवें दशक में मोहभंग हुआ और उसकी तीव्रतम अभिव्यक्ति नक्सलवादी आंदोलन में हुई। इस आंदोलन ने मध्यवर्ग को झकझोर डाला। अभिजात कुल में उत्पन्न व्रती जैसे मेधावी नौजवानों ने इसमें आहुति दी और मुर्दाघर में पड़ी लाश नंबर 1084 बन गया। उसकी माँ व्रती के जीवित रहते नहीं समझ पायी लेकिन जब समझ आया तब व्रती दुनिया में नहीं था। 1084 वें की माँ महज एक विशिष्ट कालखंड का दस्तावेज नहीं, विद्रोह की सनातन कथा भी है। यह करुणा ही नहीं, क्रोध का भी जनक है और व्रती जैसे लाखों नौजवानों की प्रेरणा का स्रोत भी। लीक से हटकर लेखन, वंचितों-शोषितों के लिए समाज में सम्मानजनक स्थान के लिए प्रतिबद्ध महाश्वेता देवी की यह सर्वाधिक कृति है। इस उपन्यास को कई भाषाओं में सराहना मिली है और अब इस विह्वलकारी उपन्यास पर गोविंद निहलानी की फिल्म भी बन चुकी है।
सुबह
बाईस साल पहले की एक सुबह सपने में सुजाता वहीं लौट गई थी। अकसर ही ऐसा होता है; कितनी बार ऐसे ही लौट जाती है, अपने-आप ही बैग में सामान समेटती है-तौलिया साड़ी, टूथब्रश साबुन। अब सुजाता की उम्र है त्रेपन। सपने में वह बत्तीस वर्ष की सुजाता को देखती है जो बैग समेटने में व्यस्त है। गर्भ के भार से ढीला शरीर, लेकिन तरुणी सुजाता अपने बेटे व्रती को इस दुनिया में लाने की तैयारी में व्यस्त है। एक-एक चीज उठाकर बैग में रखती है। उस सुजाता का चेहरा बार-बार दर्द से पीला पड़ रहा है; दाँतों से होंठों को दबाकर रुलाई रोकती है सुजाता सपने की सुजाता। व्रती जो आ रहा है !
उस दिन भी रात आठ बजे से ही दर्द उठना शुरू हो गया था। हेम अनुभवी प्रौढ़ा की तरह बोली थी: पेट नाभि के नीचे उतर आया है, माँ जी, अब ज्यादा देर नहीं है। हेम ने ही उसका हाथ पकड़कर कहा था: ‘ठीक ठाक दोनों दो शरीर होकर लौट आना।’
दर्द भंयकर होता जा रहा था। बच्चा कभी भी जन्म ले सकता है, जानकर ही सुजाता पहले से ही नर्सिंग होम में दाखिल हो गई थी। ज्योति तब दस का था, नीपा आठ और तुली छह की। उसे याद है, सास तब उसके पास ही रह रही थीं। ज्योति के बाबूजी सासजी के इकलौते पुत्र थे। एक बच्चे के जन्म के बाद ही सास विधवा हो गई थीं। सुजाता का बार-बार माँ बनना उनको सुहाता न था जाने कैसी द्वेष भरी आँखों से वह उसे देखती थीं ! बच्चा होने के ठीक पहले अपनी बहन के घर चली जाती थीं; सुजाता को मँझधार में छोड़कर।
सुजाता के पति कहते थे : माँ का मन बहुत नरम है, समझी ? उनसे यह सब देखा नहीं जाता-यह दर्द-वर्द-चीखना-चिल्लाना और क्या ! लेकिन सुजाता शायद ही कभी चीखी चिल्लाई हो। दाँत भींचकर बच्चों का बंदोबस्त भी करती। उस बार सासजी यही थीं, क्योंकि उनकी बहन यहाँ नहीं थी, और ज्योति के बाबूजी काम से कानपुर गए थे। उसे सब कुछ याद है। दिव्यनाथ को पता नहीं था कि उनकी माँ इस बार यहीं रहेंगी। वह नहीं रहेंगी, यह सोचकर भी दिव्यनाथ ने सुजाता का कोई बंदोबस्त नहीं किया, हर बार की तरह। बाथरूम में जाकर खून देखकर सुजाता घबरा गई थी; फिर सबकुछ ठीक-ठाक करके रसोइये से कहकर टैक्सी बुलवा ली थी।
नर्सिंग होम में चली गई थी सुजाता। डॉक्टर का चेहरा उसको देखकर चिंता-ग्रस्त हो गया था। सुजाता डर गई थी। दर्द से आँखें बार-बार धुँधला जाती थीं जैसे किसी ने आँखों पर घिसे काँच का टुकड़ा रख दिया हो, फिर भी जबर्दस्ती आँखें खोले रखकर डॉक्टर की तरफ देखकर उसने पूछा था: ऐम आई ऑल राइट ?’1
‘जरूर ! आप सो जाइए।’
‘आप क्या करेंगे ?’
‘ऑपरेशन।’
‘डॉक्टर साहब, चाइल्ड2 ?’
‘आप सोइए न मैं जोहूँ। अकेली क्यों आईं ?’
‘वह नहीं हैं।’
कहकर ही सुजाता हैरान रह गई थी। उसे तो यही उम्मीद थी कि कलकत्ता में रहने पर भी दिव्यनाथ उसके साथ नहीं आएँगे। फिर डॉक्टर साहब को क्यों उम्मीद हुई ? दिव्यनाथ कभी साथ नहीं आते सुजाता को अस्पताल नहीं ले जाते; बच्चे का रोना सुनना पड़ेगा इससे तिमंजिले पर ही सोते रहते। बच्चे बीमार पड़े तो खबर तक नहीं लेते, लेकिन हाँ, दिव्यनाथ की नजरें सुजाता
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1. मेरी सेहत तो ठीक है न ?
2. बच्चे का क्या होगा ?
पर जरूर लगी रहतीं; ध्यान से सुजाता को देखते कि सुजाता का शरीर फिर से माँ बनने योग्य हो रहा है या नहीं ! ‘टॉनिक खा रही हो न ?’
कैसी गाढ़ी थरथराती आवाज में दिव्यनाथ उससे पूछते हैं। कूट कूटकर वासना के उभार आने पर उनकी आवाज जाने कैसे लिजलिजाती है ! सुजाता पहचानती है इस दिव्यनाथ को। उसकी सेहत की खबर लेने का एक ही मतलब होता है दिव्यनाथ का डॉक्टर को क्या मालूम ?
डॉक्टर सुजाता को दवा देते हैं। दवा से दर्द कम नहीं हुआ। अचानक उसी समय एक अजन्मी संतान के लिए भावभीनी ममता से सुजाता का मन भर आया था। तुली होने के बाद करीब छह साल गुजर गए थे-बड़ी मुश्किल से अपने को सुजाता ने बचाकर रखा था, लेकिन आखिर हार माननी पड़ी थी।
नौ महीने तक शायद इसीलिए अपने-आपको जाने कितनी अश्लील और अपवित्र मानती रही थी वह ! शरीर के बढ़ते हुए भार को लगातार कोसती रही थी, लेकिन जैसे ही पता लगा कि बच्चे का जीवन संकट में है, तभी मन ममता से छटपटा उठा था। सुजाता ने डॉक्टर को बुलाया था, कहा था: ऑपरेशन कीजिए बचाइए उसको। ‘वही तो कर रहा हूँ।’
डॉक्टर के निर्देश से नर्स इंजेक्शन देती है। सुजाता के पेडू को चीरता हुआ दर्द अंदर बाहर हो रहा था। सन् उन्नीस सौ अड़तालीस की सोलह जनवरी। सुजाता बार-बार बिस्तर की चादर को मुट्ठी में भींच लेती थी। माथा पसीने से भीग गया था। आँखों के नीचे के स्याह घेरे फैलते जा रहे थे। जरा भी सर्दी नहीं लग रही थी, हालाँकि उस साल जनवरी में कड़ी ठंड पड़ी थी।
पेड को चीरता हुआ दर्द बाहर निकल रहा है और फिर अंदर समाता जा रहा है। बिस्तर की सफेद चादर को मुट्ठी में भींचे, पसीने से लथपथ सुजाता जाग जाती है। ज्योति के बाबूजी को देखकर उसके गोरे माथे की लंबी-लंबी भौंहे सिकुड़ जाती हैं। ज्योति के बाबूजी पास के पलंग पर क्यों हैं ? फिर अपने आप ही सिर हिलाती है। व्रती के होने के दिन दिव्यनाथ पास नहीं थे न, इसलिए सपने में वह कभी दिव्यनाथ को नहीं देखती। लेकिन अब तो वह सपना नहीं देख रही है न ?
किसी तरह हाथ बढ़ाया। बैलारगन1 की टिकिया और पानी। टिकिया मुँह में डाली, पानी से निगली। आँचल से माथा पोंछ लिया; फिर से लेट गई। अब सबसे जरूरी काम है—एक से सौ तक गिनना ! डॉक्टर ने यही कहा है। गिनती करने से ही दर्द का अहसास कम होता जाता है। जितना समय गिनने में लगता है, उतने में ही बैलारगन अपना काम शुरू कर देती है। दर्द कम हो जाता है।
फिर, सचमुच ही दर्द कम हो जाता है। अभी कम हो रहा है-कम होना बहुत जरूरी है। घड़ी की तरफ देखती है; छह बजे हैं। दीवार पर नजर दौड़ाई। कैलेंडर। सत्रह जनवरी। सोलह जनवरी की सारी रात दर्द रहा था—होश और बेहोशी के बीच झूलते हुए-ईथर की तेज गंध, रोशनी की चौंध, दर्द के बोझल और धुँधले पर्दे के उस पार डॉक्टरों की चहल पहल सारी रात। सत्रह जनवरी भोर के धुँधलके में व्रती आ पहुँचा था। आज वही सत्रह जनवरी है। और आज ही के दिन, दो साल पहले ऐसे ही इस आदमी के पास के एक पलंग पर सो रही थी सुजाता। भोर के धुँधलके में टेलीफोन की घंटी बज उठी थी, पास पड़ी मेज से। अचानक ही।
टेलीफोन की घंटी बज रही है ज्योति के कमरे में दो साल पहले।
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1. असहनीय दर्द को कम करने के लिए ली जानेवाली दवा।
उस दिन के बाद से ही ज्योति टेलीफोन अपने कमरे में ले गया था। समझदार, बहुत समझदार है ज्योति। उनकी पहली संतान दिव्यनाथ का आज्ञाकारी बेटा, बिनी का सहृदय पति, सुमन का स्नेहल पिता।
समझदार ज्योति। दो साल पहले सुजाता ने इक्यावनवाँ साल पूरा किया था, ज्योति के पिता ने छप्पनवाँ। सम्पन्न स्थिति, सजा सँवरा जीवन दोनों का। लड़की की शादी हो गई; छोटी लड़की ने भी अपने मन का लड़का ढूँढ़ लिया है। बड़ा बेटा सुप्रतिष्ठित छोटे बेटे को बाबूजी कॉलेज के बाद ही इंग्लैंड भेजेंगे-सबकुछ सधा हुआ, सँवरा हुआ, तरतीब से सजाया हुआ।
सुंदर, बहुत सुंदर था सबकुछ !
उसी समय, उम्र के उन्हीं सजे-सँवरे दिनों में टेलीफोन की घंटी बजी थी। माँ ने नींद भरी आँखों से टेलीफोन का रिसीवर उठाया था। अचानक एक अनजान, ठंडे मशीनी, अफसरी स्वर ने पूछा था : व्रती चैटर्जी आपका कौन लगता है ? बेटा ? काँटापुकूर चले आइए !’
हाँ, उस रक्त मांस और आकारहीन स्वर ने कहा था: ‘काँटापुकूर चले आइए।’ रिसीवर हाथ से छिटककर गिर पड़ा था। सुजाता नीचे गिर गई थी; दाँत भिंच गये थे।
दो साल पहले सत्रह जनवरी की सुबह व्रती के जन्मदिन के दिन व्रती के धरती पर आने के समय ही इस साफ सुथरे, सजे सजाये, घर में, इस सुंदर परिवार में, टेलीफोन की खबर ही की तरह एक अहेतुक, बेहिसाब, बेतरतीब, घटना घटी थी।
उस दिन भी रात आठ बजे से ही दर्द उठना शुरू हो गया था। हेम अनुभवी प्रौढ़ा की तरह बोली थी: पेट नाभि के नीचे उतर आया है, माँ जी, अब ज्यादा देर नहीं है। हेम ने ही उसका हाथ पकड़कर कहा था: ‘ठीक ठाक दोनों दो शरीर होकर लौट आना।’
दर्द भंयकर होता जा रहा था। बच्चा कभी भी जन्म ले सकता है, जानकर ही सुजाता पहले से ही नर्सिंग होम में दाखिल हो गई थी। ज्योति तब दस का था, नीपा आठ और तुली छह की। उसे याद है, सास तब उसके पास ही रह रही थीं। ज्योति के बाबूजी सासजी के इकलौते पुत्र थे। एक बच्चे के जन्म के बाद ही सास विधवा हो गई थीं। सुजाता का बार-बार माँ बनना उनको सुहाता न था जाने कैसी द्वेष भरी आँखों से वह उसे देखती थीं ! बच्चा होने के ठीक पहले अपनी बहन के घर चली जाती थीं; सुजाता को मँझधार में छोड़कर।
सुजाता के पति कहते थे : माँ का मन बहुत नरम है, समझी ? उनसे यह सब देखा नहीं जाता-यह दर्द-वर्द-चीखना-चिल्लाना और क्या ! लेकिन सुजाता शायद ही कभी चीखी चिल्लाई हो। दाँत भींचकर बच्चों का बंदोबस्त भी करती। उस बार सासजी यही थीं, क्योंकि उनकी बहन यहाँ नहीं थी, और ज्योति के बाबूजी काम से कानपुर गए थे। उसे सब कुछ याद है। दिव्यनाथ को पता नहीं था कि उनकी माँ इस बार यहीं रहेंगी। वह नहीं रहेंगी, यह सोचकर भी दिव्यनाथ ने सुजाता का कोई बंदोबस्त नहीं किया, हर बार की तरह। बाथरूम में जाकर खून देखकर सुजाता घबरा गई थी; फिर सबकुछ ठीक-ठाक करके रसोइये से कहकर टैक्सी बुलवा ली थी।
नर्सिंग होम में चली गई थी सुजाता। डॉक्टर का चेहरा उसको देखकर चिंता-ग्रस्त हो गया था। सुजाता डर गई थी। दर्द से आँखें बार-बार धुँधला जाती थीं जैसे किसी ने आँखों पर घिसे काँच का टुकड़ा रख दिया हो, फिर भी जबर्दस्ती आँखें खोले रखकर डॉक्टर की तरफ देखकर उसने पूछा था: ऐम आई ऑल राइट ?’1
‘जरूर ! आप सो जाइए।’
‘आप क्या करेंगे ?’
‘ऑपरेशन।’
‘डॉक्टर साहब, चाइल्ड2 ?’
‘आप सोइए न मैं जोहूँ। अकेली क्यों आईं ?’
‘वह नहीं हैं।’
कहकर ही सुजाता हैरान रह गई थी। उसे तो यही उम्मीद थी कि कलकत्ता में रहने पर भी दिव्यनाथ उसके साथ नहीं आएँगे। फिर डॉक्टर साहब को क्यों उम्मीद हुई ? दिव्यनाथ कभी साथ नहीं आते सुजाता को अस्पताल नहीं ले जाते; बच्चे का रोना सुनना पड़ेगा इससे तिमंजिले पर ही सोते रहते। बच्चे बीमार पड़े तो खबर तक नहीं लेते, लेकिन हाँ, दिव्यनाथ की नजरें सुजाता
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1. मेरी सेहत तो ठीक है न ?
2. बच्चे का क्या होगा ?
पर जरूर लगी रहतीं; ध्यान से सुजाता को देखते कि सुजाता का शरीर फिर से माँ बनने योग्य हो रहा है या नहीं ! ‘टॉनिक खा रही हो न ?’
कैसी गाढ़ी थरथराती आवाज में दिव्यनाथ उससे पूछते हैं। कूट कूटकर वासना के उभार आने पर उनकी आवाज जाने कैसे लिजलिजाती है ! सुजाता पहचानती है इस दिव्यनाथ को। उसकी सेहत की खबर लेने का एक ही मतलब होता है दिव्यनाथ का डॉक्टर को क्या मालूम ?
डॉक्टर सुजाता को दवा देते हैं। दवा से दर्द कम नहीं हुआ। अचानक उसी समय एक अजन्मी संतान के लिए भावभीनी ममता से सुजाता का मन भर आया था। तुली होने के बाद करीब छह साल गुजर गए थे-बड़ी मुश्किल से अपने को सुजाता ने बचाकर रखा था, लेकिन आखिर हार माननी पड़ी थी।
नौ महीने तक शायद इसीलिए अपने-आपको जाने कितनी अश्लील और अपवित्र मानती रही थी वह ! शरीर के बढ़ते हुए भार को लगातार कोसती रही थी, लेकिन जैसे ही पता लगा कि बच्चे का जीवन संकट में है, तभी मन ममता से छटपटा उठा था। सुजाता ने डॉक्टर को बुलाया था, कहा था: ऑपरेशन कीजिए बचाइए उसको। ‘वही तो कर रहा हूँ।’
डॉक्टर के निर्देश से नर्स इंजेक्शन देती है। सुजाता के पेडू को चीरता हुआ दर्द अंदर बाहर हो रहा था। सन् उन्नीस सौ अड़तालीस की सोलह जनवरी। सुजाता बार-बार बिस्तर की चादर को मुट्ठी में भींच लेती थी। माथा पसीने से भीग गया था। आँखों के नीचे के स्याह घेरे फैलते जा रहे थे। जरा भी सर्दी नहीं लग रही थी, हालाँकि उस साल जनवरी में कड़ी ठंड पड़ी थी।
पेड को चीरता हुआ दर्द बाहर निकल रहा है और फिर अंदर समाता जा रहा है। बिस्तर की सफेद चादर को मुट्ठी में भींचे, पसीने से लथपथ सुजाता जाग जाती है। ज्योति के बाबूजी को देखकर उसके गोरे माथे की लंबी-लंबी भौंहे सिकुड़ जाती हैं। ज्योति के बाबूजी पास के पलंग पर क्यों हैं ? फिर अपने आप ही सिर हिलाती है। व्रती के होने के दिन दिव्यनाथ पास नहीं थे न, इसलिए सपने में वह कभी दिव्यनाथ को नहीं देखती। लेकिन अब तो वह सपना नहीं देख रही है न ?
किसी तरह हाथ बढ़ाया। बैलारगन1 की टिकिया और पानी। टिकिया मुँह में डाली, पानी से निगली। आँचल से माथा पोंछ लिया; फिर से लेट गई। अब सबसे जरूरी काम है—एक से सौ तक गिनना ! डॉक्टर ने यही कहा है। गिनती करने से ही दर्द का अहसास कम होता जाता है। जितना समय गिनने में लगता है, उतने में ही बैलारगन अपना काम शुरू कर देती है। दर्द कम हो जाता है।
फिर, सचमुच ही दर्द कम हो जाता है। अभी कम हो रहा है-कम होना बहुत जरूरी है। घड़ी की तरफ देखती है; छह बजे हैं। दीवार पर नजर दौड़ाई। कैलेंडर। सत्रह जनवरी। सोलह जनवरी की सारी रात दर्द रहा था—होश और बेहोशी के बीच झूलते हुए-ईथर की तेज गंध, रोशनी की चौंध, दर्द के बोझल और धुँधले पर्दे के उस पार डॉक्टरों की चहल पहल सारी रात। सत्रह जनवरी भोर के धुँधलके में व्रती आ पहुँचा था। आज वही सत्रह जनवरी है। और आज ही के दिन, दो साल पहले ऐसे ही इस आदमी के पास के एक पलंग पर सो रही थी सुजाता। भोर के धुँधलके में टेलीफोन की घंटी बज उठी थी, पास पड़ी मेज से। अचानक ही।
टेलीफोन की घंटी बज रही है ज्योति के कमरे में दो साल पहले।
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1. असहनीय दर्द को कम करने के लिए ली जानेवाली दवा।
उस दिन के बाद से ही ज्योति टेलीफोन अपने कमरे में ले गया था। समझदार, बहुत समझदार है ज्योति। उनकी पहली संतान दिव्यनाथ का आज्ञाकारी बेटा, बिनी का सहृदय पति, सुमन का स्नेहल पिता।
समझदार ज्योति। दो साल पहले सुजाता ने इक्यावनवाँ साल पूरा किया था, ज्योति के पिता ने छप्पनवाँ। सम्पन्न स्थिति, सजा सँवरा जीवन दोनों का। लड़की की शादी हो गई; छोटी लड़की ने भी अपने मन का लड़का ढूँढ़ लिया है। बड़ा बेटा सुप्रतिष्ठित छोटे बेटे को बाबूजी कॉलेज के बाद ही इंग्लैंड भेजेंगे-सबकुछ सधा हुआ, सँवरा हुआ, तरतीब से सजाया हुआ।
सुंदर, बहुत सुंदर था सबकुछ !
उसी समय, उम्र के उन्हीं सजे-सँवरे दिनों में टेलीफोन की घंटी बजी थी। माँ ने नींद भरी आँखों से टेलीफोन का रिसीवर उठाया था। अचानक एक अनजान, ठंडे मशीनी, अफसरी स्वर ने पूछा था : व्रती चैटर्जी आपका कौन लगता है ? बेटा ? काँटापुकूर चले आइए !’
हाँ, उस रक्त मांस और आकारहीन स्वर ने कहा था: ‘काँटापुकूर चले आइए।’ रिसीवर हाथ से छिटककर गिर पड़ा था। सुजाता नीचे गिर गई थी; दाँत भिंच गये थे।
दो साल पहले सत्रह जनवरी की सुबह व्रती के जन्मदिन के दिन व्रती के धरती पर आने के समय ही इस साफ सुथरे, सजे सजाये, घर में, इस सुंदर परिवार में, टेलीफोन की खबर ही की तरह एक अहेतुक, बेहिसाब, बेतरतीब, घटना घटी थी।
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